कैंसर सिर्फ शारीरिक नहीं, भावनात्मक सेहत पर भी असर डालता है

दूसरी डिजेनेरेटिव क्रोनिक बीमारियों की तरह, कैंसर भावनात्मक सेहत को बहुत गहराई से प्रभावित करता है। और ज्यादा जानने के लिए पढ़ना जारी रखें।
कैंसर सिर्फ शारीरिक नहीं, भावनात्मक सेहत पर भी असर डालता है

आखिरी अपडेट: 24 जनवरी, 2021

कैंसर दुनिया में सबसे ज्यादा प्रचलित बीमारियों में से एक है। अकेले 2018 में 18.1 मिलियन नए मामलों की डायग्नोसिस हुई थी। इसके अलावा यह अनुमान लगाया गया है कि आने वाले दशकों में इस बीमारी के मामले बढ़ेंगे और 2040 में 29.5 मिलियन नए रोगियों की डायग्नोसिस होगी। यहां हम बात करेंगे कि कैसे कैंसर इन रोगियों के सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य को ही नहीं, भावनात्मक सेहत पर असर डालता है।

कैंसर के कारण कई हैं। उदाहरण के लिए जेनेटिक्स, इन्फेक्शन, रेडिएशन या केमिकल कार्सिनोजेन के संपर्क में आना। इसके अलावा लाइफस्टाइल की वजह से भी बहुत से मामले सामने आते हैं।

दरअसल तंबाकू, शराब, सुस्त लाइफस्टाइल, क्रोनिक स्ट्रेस, मोटापा और अपर्याप्त पोषण ऐसे फैक्टर हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक घातक ट्यूमर के विकास के जोखिम को बढ़ाते हैं।

इसके अलावा किसी भी ऐसी दूसरी बीमारी की तरह जो समय के साथ विकसित होती है और मृत्यु दर अधिक होती है, कैंसर भावनात्मक सेहत को बहुत गहराई से प्रभावित करता है।

डायग्नोसिस होने पर रोगी कैसे प्रतिक्रिया करते हैं?

डायग्नोसिस होने पर लोग बहुत अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं। यह उनके व्यक्तित्व और उनके लिए कैंसर का क्या अर्थ है, इन बातों पर निर्भर करता है। मूरे और ग्रीर (1989) के अनुसार रोगी अपनी एडजस्टमेंट स्टाइल के अनुसार प्रतिक्रिया करते हैं। इनमें टॉप पांच हैं:

  1. संघर्ष : व्यक्ति बीमारी के प्रति सक्रिय रूख अपनाता है, जानकारी लेता है और इलाज में शामिल होता है।
  2. इनकार: रोगी समस्या के बारे में बात नहीं करता है, और ऐसा काम करता है जैसे कि यह उन्हें हो ही नहीं।
  3. भाग्यवाद : रोगी अपने को सबसे बुरी स्थिति में रखता है।
  4. हताशा: रोगी में नकारात्मक विचार ज्यादा होते हैं और यह डिप्रेशन की तस्वीर को बढ़ाता हैं।
  5. एंग्जायटी: रोगी को इस बीमारी से होने वाली अनिश्चितता से निपटने में बहुत मुश्किल होती है।

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क्या समय के साथ रोगी की भावनाएँ बदल जाती हैं?

जैसे रोगी शारीरिक बीमारी के अलग-अलग स्टेज से गुजरते हैं, वैसे ही उनके विचार और भावनाएं भी बदलती हैं।

इसलिए यह बहुत अलग होगा अगर रोगी ट्रीटमेंट पर रियेक्ट करता है। इसके अलावा अगर कोई रिलैप्स हो या अगर वहाँ मेटास्टेसिस है या यदि यह टर्मिनल हो।

इसलिए रोगी के व्यक्तित्व के साथ-साथ कैंसर का स्टेज भी निर्धारित करेगा कि वे कैसे उससे निपटते हैं।

कैंसर रोगियों में एंग्जायटी और डिप्रेशन

कैंसर रोगियों में एंग्जायटी और डिप्रेशन सबसे आम मनोवैज्ञानिक रिएक्शन हैं।

डिप्रेशन

कई स्टडी के अनुसार डिप्रेशन की व्यापकता 4% से लेकर 58% रोगियों में हो सकती है, जो अध्ययन किये गए पापुलेशन और रोगियों के स्टेज पर आधारित होती है।

सामान्य आबादी की तुलना में कैंसर रोगियों में इसका औसत लगभग 40% है जो कि बहुत उंचा है।

डिप्रेशन का एपिसोड लक्षणों पर काबू पाना कठिन बना देता है, और रोगी ज्यादा बार इलाज से इनकार कर सकता है।

इस कारण यह महत्वपूर्ण है कि उनके आसपास के लोग अवसाद के लक्षणों से परिचित हों। इसके अलावा उन्हें साइको-ऑन्कोलॉजिस्ट या ऐसे रोगियों को इमोशनल सपोर्ट देने वाले व्यक्ति से संपर्क करना चाहिए।

कैंसर रोगियों में एंग्जायटी और डिप्रेशन

एंग्जायटी

कैंसर कई स्थितियों का कारण बन सकता है जहां मरीज घबराहट महसूस करते हैं, और यहां तक ​​कि बहुत भय भी। उदाहरण के लिए कुछ सबसे सामान्य कारण हैं:

  • डायग्नोसिस पर एंग्जायटी
  • अनिश्चितता का मैनेजमेंट करने में कठिनाई
  • पुरानी एंग्जायटी का दुबारा उभरना : फोबिया, पैनिक अटैक, आम चिंता या तनाव
  • शारीरिक कष्ट और दर्द का डर
  • नियंत्रण खोने की भावना
  • अपने अस्तित्व को लेकर तकलीफ
  • औषधिय इलाज को लेकर एंग्जायटी अपने आप बढ़ जाती है
  • परिवार के माहौल में दर्द से पीड़ित
  • इलाज का डर (साइड-इफेक्ट, सर्जरी, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक नतीजे)
  • मौत का भय

इसे देखें: कैंसर ट्रीटमेंट के साइड इफेक्ट क्या हैं?

कैंसर के मामले में इमोशनल सपोर्ट अहम है

कई अलग-अलग टाइप के कैंसर में हाल के वर्षों में जीवित रहने वालों की संख्या में सुधार हुआ है। हालाँकि यह अभी भी कई रोगियों के लिए एक घातक बीमारी है।

अक्सर, दोस्त और परिवार टेस्ट रिजल्ट और बायोप्सी पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं, और हम यह भूल जाते हैं कि कैंसर भावनात्मक सेहत को प्रभावित करता है। अध्ययन से पता चलता है कि रोगियों को काफी नुकसान हो सकता है।

अंत में, यह जरूरी है कि परिवार और दोस्त रोगी को भावनात्मक सहायता देना सीखें। वे विशिष्ट ट्रेनिंग ले सकते हैं, डॉक्टर से सलाह ले सकते हैं या साइको-ऑन्कोलॉजी के एक्सपर्ट के साथ भी।



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