उम्र के अनुसार नींद के घंटे
एक्सपर्ट्स को मालूम है कि जीवन के अलग-अलग स्टेज में नींद के पैटर्न में बदलाव होता है। इसलिए आपके शरीर की ज़रूरतें और लाइफस्टाइल वक्त के साथ बदलती रहते हैं। इस वजह से हर उम्र में नींद के घंटे अलग-अलग होते हैं।
उम्र के हिसाब से पर्याप्त सोना बहुत महत्वपूर्ण है। पर्याप्त नींद के घंटे न सोने के नतीजे बुरे हो सकते हैं। नींद शरीर के सही कामकाज के लिए एक मौलिक ज़रूरत है, विशेष रूप से मस्तिष्क की।
प्रत्येक व्यक्ति को कितना समय सोना चाहिए यह कई बातों पर निर्भर करता है। उम्र के हिसाब से उपयुक्त नींद के घंटे निर्धारित हैं, लेकिन यह बस एक आम इंडिकेटर है। व्यक्ति की परिस्थितियों और स्थिति के आधार पर इसमें भिन्नता आ सकती है।
पर्याप्त नींद के घंटे सोने की अहमियत
उम्र के हिसाब से सोने का समय अलग-अलग है। दरअसल सटीक श्रेणियों को विस्तृत रूप से तय करना बहुत मुश्किल होता है। कुछ युवा वयस्कों को छह घंटे सोना पर्याप्त हो सकता है, जबकि कुछ को 9 घंटे सोने की जरूरत होती है।
यह जानना कि क्या आप पर्याप्त सो रहे हैं, उन संकेतों पर ज्यादा निर्भर करता है जो आपको पर्याप्त आराम न पाने से मिलते हैं। सामान्य तौर पर जब कोई व्यक्ति दिन में रूखा और चिड़चिड़ा महसूस करे तो इसका मतलब है, शायद उन्हें पर्याप्त आराम नहीं मिल रहा है। इसी तरह जब कोई सुबह उठता है और मिनटों के भीतर फिर से सो जाता है, तो शायद उसे रात को अच्छी नींद नहीं आयी थी।
आपको कितनी सोने की ज़रूरत है, कितने नींद के घंटे चाहिए, यह निर्धारित करने के लिए एक बहुत विश्वसनीय टेस्ट यह 15 दिनों के लिए बिना किसी रोक-टोक के या बिना रूटीन तोड़े (आप छुट्टी में ऐसा कर सकते हैं) सोना है। यदि आपको कोई स्लीप डिसऑर्डर नहीं हॉप और इस अन्तारल के आखिर में आपकी नींद का समय तयशुदा दिखे तो यह मान लेना सुरक्षित होगा कि आपको पर्याप्त नींद मिल रही है।
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उम्र के अनुसार नींद के घंटे
जैसा कि हमने ऊपर बताया है, उपयुक्त नींद के घंटे हमारी उम्र के आधार पर अलग-अलग होते हैं। नेशनल स्लीप फाउंडेशन (NSF) ने हर आयु वर्ग के लिए न्यूनतम और अधिकतम सोने के घंटे की एक लिस्ट बनायी है। यह इस विषय पर नवीनतम वैज्ञानिक रिसर्च पर आधारित है।
उस रिपोर्ट के अनुसार उम्र के हिसाब से सोने के घंटे निम्न हैं:
- नवजात शिशु (0-3 महीने): 14 से 17 घंटे के बीच।
- शिशु (4-7 महीने): 12 से 15 घंटे के बीच।
- टॉडलर्स (उम्र 1-2): 11 से 14 घंटे के बीच।
- प्रीस्कूल बच्चे (उम्र 3-5): 10 से 13 घंटे के बीच।
- स्कूल-आयु वाले बच्चे (उम्र 6-13): 9 से 11 घंटे के बीच।
- किशोर (उम्र 14-17): 8 से 11 घंटे के बीच।
- युवा वयस्क (उम्र 18-25): 7 से 9 घंटे के बीच।
- वयस्क (उम्र 26-64): 7 से 9 घंटे के बीच।
- बुजुर्ग या बड़े वयस्क (उम्र 65 और ऊपर): 7 से 8 घंटे के बीच।
उम्र का असर सोने पर क्यों पड़ता है?
शिशुओं को वयस्कों की तुलना में ज्यादा नींद की ज़रूरत होती है क्योंकि यह उनके उचित शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिए ज़रूरी है। नींद के दौरान बच्चों के शरीर में ज्यादा मात्रा में ग्रोथ हार्मोन पैदा होते हैं। यह अंगों के विकास और नर्वस सिस्टम को ठीक रखने के लिए ज़रूरी है। साथ ही बच्चे लगातार सीखते हैं। नींद एकमात्र ऐसी चीज है जो उन्हें दिन में मिली जानकारी को व्यवस्थित करने की सहूलियत देती है। जैसे-जैसे वे बढ़ते और परिपक्व होते हैं, उन्हें कम सोने की ज़रूरत होती है।
किशोरावस्था के दौरान सर्केडियन रिद्म का एक अस्थायी असंतुलन होता है, जो कि एक प्रकार की अंदरूनी बायोलॉजिकल क्लॉक है। यह उन्हें रात में देर से सोने की ओर ले जाता है और इसलिए सुबह जल्दी जागना मुश्नेकिल हो जता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हमें कम नींद की जरूरत होती है।
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पूरी नींद न मिलने वाले दादाजी की हाइपोथेसिस
एक महत्वपूर्ण अकादमिक जर्नल में प्रकाशित एक स्टडी बताती है कि उम्र के साथ नींद के पैटर्न में बदलाव का एक कारण विकासवादी अनुकूलन (evolutionary adaptation) हो सकता है। इस संभावना को “पूरी नींद न मिलने वाले दादाजी की हाइपोथेसिस” के नाम से जाना जाता है।
इसके अनुसार हमारे पूर्वजों को जीवित रखने में मदद करने वाले फैक्टर में से एक यह तथ्य था कि व्यक्ति रात में जागता रहे। जैसे-जैसे बड़े वयस्कों ने दिन की एक्टिविटी कम की और निगरानी की असाधारण जरूरते नहीं रह गयीं वे इस काम को करने के लिए जिम्मेदार हो गए।
आदिम समुदायों में, यह पाया गया है कि बूढ़े लोग बहुत जल्दी बिस्तर पर चले जाते हैं और सुबह जल्दी उठते हैं। यह हमारे मानव पूर्वजों की विरासत वाला एक व्यवहार हो सकता है जो इस स्पष्टीकरण का समर्थन करता है कि नींद के घंटे उम्र के साथ क्यों बदलते हैं।
यह आपकी रुचि हो सकती है ...- Miró, Elena e Iáñez, Ma. Angeles y Cano-Lozano, Ma. del Carmen (2002). Patrones de sueño y salud. Revista Internacional de Psicología Clínica y de la Salud, 2 (2), 301-326. [Fecha de consulta 7 de junio de 2020]. ISSN: 1697-2600. Disponible en: https://www.redalyc.org/articulo.oa?id=337/33720206
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