क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता: कुछ लोग दिन भर शिकायतें ही क्यों करते रहते हैं?
क्या आप क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता से ग्रस्त किसी व्यक्ति को जानते हैं? इसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन वे सभी कारण ऐसे लोगों की समान विशेषताओं का आधार होते हैं।
क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता वाले लोग आमतौर पर खुद को लेकर अनिश्चित-से होते हैं। वे दूसरों पर निर्भर करते हैं व अपनी समस्याओं का समाधान निकालने या अपनी ग़लती मानने में असमर्थ होते हैं।
ऐसा माना जाता है कि विक्टिम मानसिकता किसी मनोवैज्ञानिक अवस्था का एक संभावित लक्षण होती है। इसके पीछे कारण यह है कि इस अवस्था से जूझते लोगों में यह बहुत तीव्रता से उभरकर सामने आ सकती है।
इससे न सिर्फ़ उन्हीं का जीवन, बल्कि उनसे जुड़े सभी लोगों का जीवन भी पूरी तरह से प्रभावित हो जाता है।
हम सभी को अपनी ज़िन्दगी में कभी न कभी किसी न किसी मुश्किल का सामना करना ही पड़ता है। कहीं न कहीं, हम सभी पीड़ित (विक्टिम) रह चुके हैं, फिर भले ही वह इसलिए हो कि किसी ने हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी, या फिर हमने खुद कोई गलत फैसला लिया था। लेकिन अगर ऐसा कुछ है जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को बेहतर बनाता है तो वह है एक सकारात्मक रवैया। एक अच्छे नज़रिये के साथ हम किसी भी मुश्किल से पार पाकर आगे बढ़ सकते हैं।
बदकिस्मती से, यह हर किसी के बस की बात नहीं होती। एक अच्छा रवैया अपनाने के बजाय वे खुद को नकारात्मकता की खाई में धकेल देते हैं, जिससे वे सारी ज़िन्दगी के लिए अपनी ही मानसिकता के शिकार बनकर रह जाते हैं।
विक्टिम मानसिकता वाले लोगों का बर्ताव कैसा होता है?
ऐसे लोग आसानी से पहचान में आ जाते हैं। उनके चेहरे के हाव-भाव, उनकी बेढंगी चाल, और उनके निरंतर निराशावादी स्वर पर ध्यान देना ही काफी होता है।
- वे यह साबित करने की कोशिश में रहते हैं कि उनके साथ होने वाली हर बुरी चीज़ किसी तरह का कोई शाप या किसी और की गलती का नतीजा है।
- नतीजतन, उनकी विक्टिम मानसिकता इतनी बढ़ जाती है कि वे अपने आसपास मौजूद लोगों से कटने लगते हैं।
- कड़वाहट या जलन जैसी भावनाओं को दिल से लगाए रख वे अपनी दुर्दशा के लिए किसी प्रकार की कोई भी ज़िम्मेदारी लेने से बचते हैं।
क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता वाले किसी व्यक्ति की सबसे स्पष्ट विशिष्टताओं में से कुछ हैं:
1. मदद न मिलने के लिए वे दूसरों को दोषी ठहराते हैं
अधिकाँश मामलों में दूसरों से मदद न मिल पाने पर वे निराश हो जाते हैं। अपनी काबिलियत पर यकीन न कर वे यही सोचते रहते हैं कि वे अपनी समस्याओं को हल नहीं कर सकते।
आमतौर पर हर बात को लेकर वे अपना ही दुखड़ा रोते रहते हैं।
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2. अनजाने में ही वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ लेते हैं
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी परेशानियों का वास्तविक कारण क्या है। वे हमेशा इसी फिराक में रहते हैं कि अपनी गलतियाँ मानने के बजाय बातों को घुमा-फिराकर किसी और की गलती कैसे निकाली जाए।
खुद को एक पीड़ित मानते-मानते उनकी विक्टिम मानसिकता उनके स्वभाव का एक हिस्सा बन जाती है।
3. वे अपनी आलोचना कम ही करते हैं
क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता से पीड़ित लोग अपनी खूबियाँ तो देख ही नहीं पाते, वे अपनी बुराई करने से भी नहीं हिचकिचाते। लेकिन यह सिर्फ उनका इसी बात को साबित करने का तरीका मात्र हो सकता है कि दरअसल गलती किसी और की थी।
कुल मिलाकर, उनकी विक्टिम मानसिकता आत्मालोचना की उनकी क्षमता को सीमित बना देती है।
4. उनकी कल्पना-शक्ति दुर्भाग्य पर केन्द्रित होती है
ऐसे लोगों को लगता है कि पूरी दुनिया दुःख में जी रही है और भविष्य भी अंधकारमय ही होगा।
उन्हें तो इस बारे में लोगों से बात करके भी अच्छा लगता है। यह सभी वास्तविकता को देखने के एक विकृत नज़रिये की देन होती है।
5. अनजाने में वे अपनी चालाकी से लोगों को प्रभावित करते हैं
ज़रूरत पड़ने पर मदद मांगने का उनका इकलौता तरीका ब्लैकमेल करना होता है।
ऐसे में, दूसरों के दिमाग के साथ खिलवाड़ कर वे हमेशा खुद को किसी पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं। फिर उनके किसी दुर्घटना या विपदा में पड़ने पर अन्य लोग खुद को दोषी मानकर उनकी मदद कर देते हैं।
6. छोटी-छोटी समस्याएं बड़ी बन जाती हैं
क्रॉनिक विक्टिम मानसिकता एक ऐसी समस्या है जो वक़्त बीतने के साथ-साथ बद से बदतर होती जाती है। उनकी शिकायतें और दुखड़े रोने की आदत बन जाती हैं।
निराश-हताश महसूस करने से उनके लिए हर चीज़ एक भावनात्मक बोझ में तब्दील हो जाती है।
यही वह मोड़ होता है, जहाँ आकर लोग अपने ही विक्टिम बन जाते हैं और उस स्थिति से बाहर नहीं निकल पाते।
अगर आपको या आपके किसी जानकार को ऐसा महसूस होता है तो मदद मांगने से हिचकिचाएं नहीं। नतीजे चौंकाने वाले होंगे।
- José María Perceval. (2008). Víctimas y verdugos. Realidad y construcción de la víctima y el victimismo. Universitat Internacional de la Pau. Recull de ponències, Nº. 22, 2008 (Ejemplar dedicado a: XXII edició. Processos de pau. Sant Cugat del Vallès, Juliol 2007), ISBN 978-84-61-16996-2, págs. 201-212. https://dialnet.unirioja.es/servlet/articulo?codigo=2794465
- Pilar San Juan Sanz. (2015). PLAYING RUSSIAN ROULETTE (A CASE ABOUT BORDERLINE PERSONALITY DISORDER AND ALCOHOL AND COCAINE DEPENDENCE). Revista de Patología Dual. https://patologiadual.es/docs/revista/pdfs/2015_6.pdf