वक़्त सभी ज़ख्मों को भर देता है
किसी ने आपको कितनी भी ठेस क्यों न पहुंचाई हो, आपने जितना भी कष्ट क्यों न भोगा हो, देर-सवेर वक़्त आपके सभी ज़ख्मों को भर देता है।
ज़ख्मों को भरने के लिए हमें जो वक़्त और स्पेस चाहिए उसके बारे में कई कहावतें हैं। यह ऐसी चोट होती है जिसका दाग तो रह जाता है, पर उससे हमें कोई दर्द नहीं होता।
हम अपनी तकलीफ का समाधान वर्तमान में खोजने की कोशिश करते हैं। शोक या ज़्यादा पीड़ा से गुज़रे बगैर ही एक कारगर उपाय की तलाश में रहते हैं।
लेकिन ज़िन्दगी हमारी मर्ज़ी की मोहताज नहीं होती ख़ासकर बात जब भावनाओं की आती है।
अपने ज़ख्मों पर वक़्त की मलहम लगाना ज़रूरी होता है।
वक़्त और एक नया नज़रिया
हमारी आँखें भावनाओं से धूमिल होकर कुछ भी ठीक से देख-समझ नहीं पाती। इसलिए हालात जब हमें एक तमाशबीन बनाकर छोड़ते हैं, तब हमें कई चीज़ें समझ नहीं आती।
उदहारण के तौर पर, घरेलू हिंसा से पीड़ित लोग अपने साथी के पास लौटकर उसके अन्याय को सही ठहराने में लग जाते हैं।
उस घटना को देखने वाले किसी मूक दर्शक के रूप में आप समझ नहीं पाते कि पीड़ित व्यक्ति ने कोई शिकायत दर्ज क्यों नहीं की या फ़िर किसी से मदद क्यों नहीं मांगी। लेकिन आप यह नहीं समझ पाते, उसकी जगह अगर आप होते तो शायद आप भी वैसे ही पेश आते।
घरेलू हिंसा से पीड़ित लोगों को मिली-जुली भावनाओं के साथ-साथ लगातार इमोशनल मैनीप्यूलेशन से जूझना पड़ता है। आत्मविश्वास और मानसिक दृढ़ता की अपनी कमी के चलते वे कोई फैसला नहीं ले पाते।
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घरेलू हिंसा का सामना कर चुके लोग अपने साथ ज़्यादती करने वाले इंसान को अक्सर सही क्यों ठहराते हैं? क्योंकि उनकी आँखों पर भावनाओं की पट्टी बंधी होती है। किसी स्थिति को बाहर वाले के नज़रिये से देखने और उसे खुद अनुभव करने में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है।
इसलिए किसी मुश्किल के बाद खुद को वक़्त देना बेहद ज़रूरी हो जाता है। हालात के बारे में सोच-विचार कर लेने का खुद को स्पेस और समय देने के बाद ही हम स्थिति को ठीक से समझ पाते हैं।
किसी मुश्किल दौर में आपके शब्द या बर्ताव आपकी इच्छा के अनुकूल नहीं होते। ऐसा इसलिए होता है कि आपकी भावनायें आपके वश में नहीं होतीं।
आज चुभने वाले ज़ख्म कल नहीं चुभेंगे
अतीत में हमारा जीवन कैसा भी रहा हो, वर्तमान में हमारी एक अलग ही पहचान होती है।
अगर आप घरेलू हिंसा से गुज़री हैं, काफ़ी लंबे समय तक बेरोजगार रही हैं या अपने किसी करीबी को खो चुकी हैं तो देर-सवेर आप उस दर्द से उभर ही आयेंगी।
वक़्त की कसौटी पर हमारी भावनायें धूमिल हो जाती हैं। हम साल भर दुखी नहीं रहते। हम साल भर खुश भी तो नहीं रह सकते। हमारी भावनायें हमेशा बदलती जो रहती हैं।
किसी भावना के लंबे समय तक बने रहने पर आख़िर क्या होता है? ऐसे में हम एक ऐसे डिप्रेशन या बीमारी की चपेट में आने लगते हैं, जिस पर लगाम लगाना ज़रूरी हो जाता है।
आइए, अब एक उदहारण पर गौर करते हैं। मान लीजिए आपके साथी ने आपके साथ बेवफाई कर आपको काफ़ी ठेस पहुंचाई थी। नतीजतन कुछ समय के लिए आपने किसी पर भी भरोसा करना ही छोड़ दिया था। लेकिन वह एक अस्थायी दौर था। अंत में आपने उस बात को भुला दिया।
आज के हमारे ज़ख्म कल या परसों या फ़िर अगले महीने भी आज जितने हरे नहीं रहते। हम सभी अलग-अलग व्यक्तित्व वाले लोग हैं व अपने ज़ख्मों को भरने के लिए हम सभी को अलग-अलग वक़्त चाहिए होता है।
हर चीज़ का एक सकारात्मक पहलू होता है
बुरे से बुरे हालात में भी कुछ न कुछ अच्छा ज़रूर होता है जिससे हम कोई सीख ले सकते हैं। दर्द और चुनौतियाँ हमें कुछ ऐसे सबक सिखा सकती हैं:
- सबसे पहली सीख तो यही है कि नकारात्मक परिस्थितियां हमें कई सबक सिखा जाती हैं। जैसाकि किसी महान इंसान ने कहा है: “आप एक ही गलती को दोहराते नहीं हैं क्योंकि उसे दोहराने पर वह कोई गलती न होकर एक फैसला बन जाती है”। अगर आप उस गलती को टाल नहीं सकते तो कम से कम इतना तो आप सीख ही जाते हैं कि आगे जाकर उससे आपको कैसे निपटना है।
- दूसरा सबक होता है कि हम पहले से ज़्यादा ताकतवर बन जाते हैं। कोई भी मुश्किल या चुनौती हमें पहले से ज़्यादा ताकतवर और साहसी बना देती है।
- तीसरा सबक यह होता है कि आप खुद को बेहतर समझने लगते हैं। हमारी ज़िन्दगी के हालात हमारा इम्तिहान लेकर जीवन की अप्रत्याशित घटनाओं का सामना करने का हुनर हमें सिखा जाते हैं।
दर्द आपको कमज़ोर नहीं, बल्कि ताकतवर बनाता है। वक़्त उसके ज़ख्मों को भर देता है।
अपने अतीत में झाँकने पर आपको पहले जैसा महसूस नहीं होता व हो सकता है कि आपको यह भी लगे: “मैं भी कितनी बुद्धू थी न! मुझे वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था”।
सच तो यह है कि अगर उस बुरे अनुभव से आप गुज़रे न होते तो उस वक़्त के अपने व्यवहार के बारे में सोचने का आपको मौका तक न मिल पाता।
माँ के पेट से कोई सीखकर नहीं आता। ज़िन्दगी तो सीखने की एक प्रक्रिया है।
ध्यान रखें कि दर्द हमेशा अस्थायी होता है व वक़्त सभी ज़ख्मों पर मलहम लगा देता है।
- Forés, A., y Grané, J. (2008). La resiliencia. Crecer desde la adversidad. Barcelona: Plataforma.
- Linares, R. (2015). Resiliencia o la adversidad como oportunidad. Sevilla: Renacimiento.
- Santos, R. (2013). Levantarse y luchar. Barcelona: Mondadori.