जानें लिपेडेमा नाम की गंभीर बीमारी के बारे में
लिपेडेमा (जिसे “पेनफुल फैट सिंड्रोम” के नाम से भी जाना जाता है) मुख्य रूप से महिलाओं में पाया जाने वाला एक स्थायी रोग होता है। इस बीमारी में हमारे कूल्हों के पास चरबी की एक अनुपातहीन मात्रा जमा होने लगती है।
सेल्युलाइटिस या “लव हैंडल्स” के विपरीत, यह बीमारी आपकी पिण्डलियों और टखनों तक भी फ़ैल सकती है। इसकी वजह से आपके शरीर में बहुत तेज़ दर्द होता है।
इस बीमारी से पीड़ित लोगों को अपनी खूबसूरती में लगे इस दाग के साथ-साथ उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों से भी जूझना पड़ता है। अचानक ही, बिना किसी स्पष्ट कारण के उनके कूल्हों और टांगों का आकार इतना बढ़ जाता है कि उनके लिए चलना-फिरना दूभर हो जाता है।
पुरुषों में लिपेडेमा इतना आम नहीं है। हाँ, कुछ मामलों में वह उनके चेहरे के आसपास काफ़ी सूजन पैदा कर देता है।
यहाँ हम यह भी साफ़ कर देना चाहेंगे कि इस बीमारी को मोटापा समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। इस अवस्था में रोगी के खान-पान और जीवन-शैली का उसके शरीर में होने वाले चरबी के अत्यधिक जमाव से कोई लेना-देना नहीं होता।
यह तो काफ़ी तेज़ दर्द पैदा करने वाली एक आनुवंशिक बीमारी होती है।
लिपेडेमा से जूझते लोगों को इस बीमारी के बारे में जानकारी देने की उम्मीद से आज हम इस बारे में आपके साथ कुछ बातें साझा करना चाहेंगे।
लिपेडेमा वाली ज़िन्दगी: एक दैनिक चुनौती
माँ बनने तक 29 वर्षीय सारा का जीवन किसी साधारण महिला जैसा ही था। माँ बनने के बाद, अपने बच्चे की देखभाल करते-करते गर्भावस्था के दौरान बढ़े अपने वज़न को कम करने के लिए उन्होंने एक सख्त डाइट का पालन करना शुरू कर दिया।
लेकिन अगले कुछ महीनों के दौरान उनके शरीर में कुछ असामान्य-से बदलाव आने लगे।
उनकी कमर, धड़ और बाज़ुयें पतली होकर अपने पुराने आकार में वापस आ गईं। लेकिन उनके कूल्हों और टांगों पर जमा होती चरबी तो जैसे रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
डेढ़ साल बाद उनका चलना-फिरना भी दूभर हो चुका था। नतीजतन उन्हें मजबूर होकर व्हीलचेयर का इस्तेमाल करना पड़ा।
जल्द ही डॉक्टरों की समझ में आ गया कि उन्हें लिपेडेमा हो गया था। इस बीमारी के बारे में सारा ने पहले कभी सुना तक नहीं था।
उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह से बदल चुकी थी।
बदकिस्मती से, इलाज के काफ़ी सीमित विकल्प मौजूद होने की वजह से कुछ कम्प्रेशन उपकरण व हल्की-फुल्की कसरत उन्हें दिए जाने वाले एकमात्र उपचार थे।
उनके सामने लिपोसक्शन का विकल्प भी खुला था। यह और बात थी कि उस विकल्प के लिए उनके पास पैसे नहीं थे।
वैसे भी, डॉक्टरों ने यह साफ़ कर दिया था कि उनका लिपेडेमा जल्द ही लौट आएगा, जिसका मतलब था कि उनकी टांगों का वज़न दुबारा बढ़ना तय था।
सारा इस बात से भलीभांति वाकिफ़ थी कि अपने बच्चे का ख्याल रखने के लिए उन्हें किसी की मदद लेनी पड़ेगी व हो सकता है कि उन्हें कोई और नौकरी भी ढूंढनी पड़े। आज, शीशे में दिखाई देने वाला उनका प्रतिबिंब एक बदली हुई महिला का है, जिसे अपनी वर्तमान अवस्था को स्वीकार कर उसकी मदद करने का कोई रास्ता खोज निकालना होगा।
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लिपेडेमा आख़िर क्यों होता है?
सुनने में यह बात भले ही कितनी भी अजीब क्यों न लगे पर लिपेडेमा और टांगों, बाज़ुओं या (पुरुषों के संदर्भ में कहें तो) चेहरे में चरबी के इस अत्यधिक जमाव के कारणों के बारे में कोई भी स्पष्ट और विषयपरक अध्ययन मौजूद नहीं हैं।
यह माना जाता है कि इसके पीछे आनुवंशिक कारणों का हाथ होता है व कुछ मेटाबोलिक, सूजन पैदा करने वाले और हॉर्मोनल कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं।
इसके लक्षण क्या-क्या होते हैं?
चरबी का यह असामान्य जमाव आमतौर पर युवावस्था में, गर्भावस्था के बाद या यहाँ तक कि मेनोपॉज के दौरान भी शुरू हो सकता है।
इसके रोगियों को दिखाई देने वाले सबसे शुरुआती लक्षण ये होते हैं:
- आराम करते, चलते या उसे स्पर्श करते वक़्त हमारे सॉफ्ट टिशू में होने वाला दर्द।
- कमर से घुटनों या टखनों तक लिपेडेमिक चरबी का आकस्मिक जमाव। हाँ, रोगियों के पैरों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
- गांठों या छोटी-छोटी थैलियों में जमा होकर वह चरबी उनके जोड़ों पर इतना दबाव डालती है कि सामान्य रूप से चल-फिर पाना भी उनके लिए एक नामुमकिन-सा काम हो जाता है।
- उनकी त्वचा अपना लचीलापन खो बैठती है।
- उस पर चोट और सूजन के निशान दिखाई देने लगते हैं।
इस पहली स्टेज के कुछ महीने बाद मरीज़ को ये लक्षण दिखाई देने लगते हैं:
- लगातार ठंड लगना।
- थकान।
- उनकी त्वचा रबड़ जैसी होने लगती है।
- स्थायी दर्द और चलने में आने वाली बढ़ती दिक्कतें। इसके साथ ही उन्हें अपने शरीर के बदसूरत हो जाने से पैदा होने वाली समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, जो निराशा, गुस्से और दुःख जैसी भावनाओं को तब तक पोषित करती रहती हैं, जब तक कि वे डिप्रेशन में न बदल जाएँ।
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क्या लिपेडेमा का कोई इलाज होता है?
जैसाकि हमने आपको बताया था, लिपेडेमा का ख़राब आहार या अस्वस्थ जीवन-शैली से कोई नाता नहीं होता।
यह तो दरअसल एक स्थायी रोग होता है, जो आपकी चाल को सीमित कर आपके शरीर में कमज़ोरी पैदा कर देता है। इसीलिए इसके उपचार को बड़ा और हरेक रोगी की ज़रूरत के अनुसार होना चाहिए। ज़ाहिर है कि लिपेडेमा के इलाज के दौरान इस बीमारी के मनोवैज्ञानिक पहलू को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
डाइट करने और व्रत रखने से इस समस्या का कोई समाधान नहीं होता। आपके शरीर में मौजूद अत्यधिक चरबी का किसी भी दवा से कोई उपचार भी नहीं किया जा सकता।
आज के ज़माने में इसके सबसे आम इलाज हैं:
- चरबी को “बहाने” और हटाने वाले कम्प्रेशन उपकरण।
- मैन्युअल लिम्फैटिक ड्रेनेज पर केन्द्रित मालिशें।
- प्रेसोथेरेपी।
- शॉक वेव्स।
- मेसोथेरेपी।
- रेडियो वेव थेरेपी।
- लिपोसक्शन। ध्यान रहे कि लिपोसक्शन हमेशा कारगर नहीं होता। यह कोई स्थायी समाधान नहीं होता व कई मामलों में इससे आपकी हालत बद से बदतर भी हो सकती है।
- तैराकी करके कई रोगियों को कमाल के नतीजे प्राप्त हो रहे हैं।
हरेक रोगी की हालत के हिसाब से उसके लिए सही रणनीति खोज निकालना ही इस समस्या का बुनियादी समाधान होता है। रोगियों को अपनी परेशानी के हल के बारे में सोचते वक़्त उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। इस अवस्था का अभी भी कोई रामबाण उपाय मौजूद न होने की वजह से फ़िलहाल अपने शरीर में आए बदलावों को स्वीकार कर लेने से आपका मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य ठीक बना रहता है।
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