ब्लड टेस्ट कितने अंतराल पर कराना चाहिए?
कई लोग भले ही मानते हों कि वे स्वस्थ हैं इसलिए ब्लड टेस्ट कराना गैरज़रूरी है। लेकिन ठीक इसी वजह से उन्हें ब्लड टेस्ट कराना चाहिए। सही वक्त पर इलाज कराने के और रोगों का पता लगाने के लिए रेगुलर ब्लड टेस्ट की सिफारिश की जाती है।
जब आपका डॉक्टर रेगुलर ब्लड टेस्ट की सिफारिश करे तो वे दरअसल कुछ बीमारियों का संकेत देखने के लिए ऐसा करते हैं जो निश्चित उम्र में आम तौर पर देखी जाती हैं। लक्षण उभरने से पहले भी खून में मौजूद कुछ तत्वों में बदलाव आ सकता है। यह रोकथाम वाले इलाज के लिए एक बहुत फायदेमंद साबित होता है और भविष्य की जटिलताओं को भी रोकता है। दूसरी ओर अगर रोगी पहले से ही क्रोनिक बीमारी से पीड़ित है, तो रेगुलर ब्लड टेस्ट डॉक्टरों को उनकी प्रोग्रेस तय करने और इलाज की प्रभावशीलता पर निगरानी रखने की सहूलियत देता है।
खून का इस्तेमाल शरीर की अन्दरूनी स्थिति की पड़ताल करने के माध्यम के रूप में किया जाता है। इसके नतीजे तेजी से मिलते हैं और खून का सैम्पल लेना भी आसान होता है। हर जगह लैब हैं, जांच सस्ती हैं, और उनकी वे वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हैं।
एक नियम के रूप में स्वस्थ माने जाने वाले लोगों को सालाना टेस्ट की ज़रूरत होती है। हालांकि पुरानी बीमारियों से पीड़ित रोगियों को बार-बार टेस्ट की ज़रूरत होती है खासकर इलाज की शुरुआत में।
ब्लड टेस्ट में डॉक्टर क्या देख सकते हैं?
जब हम ब्लड टेस्ट की बात करते हैं, तो हम ब्लड टिशू पर बायोकेमिकल टेस्ट की बात कर रहे हैं। खून एक तरल टिशू है जो नसों और धमनियों के माध्यम से सर्कुलेटरी सिस्टम में घूमता है।
हालांकि यह तरल है, तो भी खून में जो तत्व हैं
ठोस भाग : खून के ठोस भाग को गठित तत्वों के रूप में भी जाना जाता है, जैसे लाल रक्त कोशिकायें, सफेद रक्त कोशिकायें, और प्लेटलेट्स।
तरल पदार्थ : खून का तरल हिस्सा ब्लड प्लाज्मा कहलाता है।
लोगों में बीमारी के संकेतों की जांच करने और मौजूदा बीमारियों के विकास का आकलन करने के लिए ब्लड टेस्ट किया जाता है।
टेस्ट के कुछ हिस्से खून के ठोस भाग पर फोकस करते हैं और इसकी सेल्स का विश्लेषण करते हैं। उदाहरण के लिए रेड ब्लड सेल काउंट तय करता है कि खून की दी गई मात्रा में कितनी कोशिकाएँ मौजूद हैं। सफेद रक्त कोशिकायें और प्लेटलेट्स की संख्या भी निर्धारित की जा सकती है। साथ ही एक माइक्रोस्कोप खून के गठित तत्वों के शेप को भी देख सकता है। लाल रक्त कोशिकाएं बड़ी या छोटी हो सकती हैं और उनमें विकृति या विशेष सीमाएं दिख सकती हैं जो बीमारी के उभरने का संकेत देती हैं।
दूसरी ओर लैब में खून के तरल हिस्से को मापने के कई पैरामीटर हैं। वे आमतौर पर शुगर, क्रिएटिनिन (creatinine), यूरिया, यूरिक एसिड और लिपिड के प्लाज्मा कंसंट्रेशन को मापते हैं। डॉक्टर भी आयन कंसंट्रेशन जैसे कि सोडियम, मैग्नीशियम और पोटेशियम को माप सकते हैं।
ब्लड टेस्ट से एक व्यक्ति अपने शरीर की हार्मोन कंसंट्रेशन के बारे में जानकारी पा सकता है। आमतौर पर डॉक्टर थायरॉयड ग्लैंड द्वारा पैदा किये गए हार्मोन की संख्या निर्धारित करने के लिए थायरॉयड फ़ंक्शन टेस्ट की सिफारिश कर सकता है।
आखिरकार लैब द्वारा संक्रामक रोगों की उपस्थिति या इन रोगों के खिलाफ एंटीबॉडी की उपस्थिति का पता लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सीरोलॉजी है।
प्रत्येक उम्र के लिए ज़रूरी ब्लड टेस्ट
जीवन के हर स्टेज के लिए कुछ रेगुलर ब्लड टेस्ट निर्धारित किए गए हैं। दूसरे शब्दों में रोगी की उम्र के आधार पर डॉक्टर इस बात पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि उनके लिए सबसे उचित बायोकेमिकल टेस्ट क्या होगा। ये प्रोटोकॉल ग्लोबल और राष्ट्रीय स्तर पर हर बीमारी के लिए सबसे आम उम्र के आधार पर तय किए गए हैं। माना जाता है कि ये टेस्ट उन ज्यादातर बीमारियों का पता लगाने की सहूलियत देते हैं जो मृत्यु का कारण बनती हैं या लाइफ क्वालिटी को बदल देती हैं।
आइए एक नज़र डालते हैं कि जीवन के अलग-अलग चरणों में ब्लड टेस्ट क्यों अहम हैं।
20 और 35 की उम्र के बीच ब्लड टेस्ट
वैसे तो ज्यादातर रोग इस उम्र में नहीं उभरते हैं, पर भविष्य की जटिलताओं को रोकने के लिए सालाना स्क्रीनिंग ज़रूरी है। जिन बीमारियों का जल्द पता चल जाता है उनका इलाज आसान होगा।
इस एज ग्रुप के लिए रेगुलर लैब टेस्ट में टोटल ब्लड काउंट, किडनी और लिवर फंशन, ब्लड शुगर और लिपिड प्रोफाइल शामिल हैं।
गर्भवती महिलाओं के लिए ब्लड टेस्ट
प्रसव की उम्र के दौरान महिलाएं गर्भवती हो सकती हैं। गर्भावस्था विशेष स्थिति है जिसमें हर ट्राइमेस्टर के लिए विशिष्ट ब्लड टेस्ट की ज़रूरत होती है।
गर्भावस्था में रेगुलर हालात को मापने के लिए हर तीन महीने में कम से कम एक बार टोटल ब्लड काउंट शामिल होता है, साथ ही भ्रूण को प्रभावित कर पाने वाले इन्फेक्शन के टेस्ट भी हैं जैसे कि टॉक्सोप्लाज़मोसिज़ (toxoplasmosis), सिफलिस (syphilis), हेपेटाइटिस बी और एड्स।
35 से 55 की उम्र के बीच
इस आयु वर्ग के लिए दूसरे टेस्ट की ज़रूरत होती है। चालीस से ऊपर की उम्र वाली आबादी में क्रोनिक बीमारियों की व्यापकता बढ़ जाती है। डॉक्टर इमेजिंग टेस्ट के साथ ब्लड टेस्ट का संकेत देते हैं, उदाहरण के लिए मैमोग्राफी; पैथोलॉजी टेस्ट जैसे कि पैप स्मीयर और इनवेसिव टेस्ट जैसे कोलोनोस्कोपी।
डॉक्टर आमतौर पर हार्मोनल असंतुलन का पता लगाने के लिए टेस्ट भी शामिल करते हैं, खासकर उन महिलाओं में जो मेनोपाज से गुजर रही हैं।
60 वर्ष की आयु के बाद
वरिष्ठ नागरिकों में रोग ज्यादा होते हैं। 60 से ज्यादा की उम्र के लोग पहले से ही क्रोनिक मेडिकल कंडीशन से पीड़ित होते हैं, यही वजह है कि उन्हें अक्सर ब्लड टेस्ट कराना चाहिए।
हर एग ग्रुप के लिए विशिष्ट रूटीन टेस्ट हैं। वे यह निर्धारित करने में मदद कर सकते हैं कि क्या व्यक्ति में उन बीमारियों का विकास हो रहा है जो उनके एज ग्रुप में प्रचलित हैं।
अधिक जानने के लिए पढ़ें: सेब के सिरके की मदद से कोलेस्ट्रॉल और ब्लड शुगर घटाएं
निष्कर्ष
ब्लड टेस्ट करवाना एक स्वस्थ व्यक्ति की रूटीन का हिस्सा है। यदि कोई व्यक्ति किसी बीमारी से पीड़ित है, तो बीमारी को आगे बढ़ने से रोकने के लिए नियमित रूप से बायोकेमिकल टेस्ट कराना ज़रूरी है।
चेकअप के बाद आपके मेडिकल प्रैक्टिशनर को पता चलेगा कि आपकी उम्र और शारीरिक स्थिति के अनुसार आपको कौन से टेस्ट करवाने चाहिए। याद रखें कि समय पर विश्लेषण करवाना गंभीर समस्याओं का पता लगा सकता है और बड़े रोगों को रोक सकता है।
यह आपकी रुचि हो सकती है ...